''चाहे आज हम हों इक्कीसवीं सदी के लोग,
किन्तु गति अवरोध कर दी है खाई ने ।
परिवार की इकाई कोने में छिपी हुई है,
इतना डराया मँहगाई की दहाई ने ॥
साँस चलती है आम आदमी की इसलिए,
धागा टूटने ना दिया श्रम की कमाई ने ।
आम लोग ढो रहे थे सिर पे गरीबी, अब
तोड़ दी कमर बढ़ी हुई मँहगाई ने ॥
किन्तु गति अवरोध कर दी है खाई ने ।
परिवार की इकाई कोने में छिपी हुई है,
इतना डराया मँहगाई की दहाई ने ॥
साँस चलती है आम आदमी की इसलिए,
धागा टूटने ना दिया श्रम की कमाई ने ।
आम लोग ढो रहे थे सिर पे गरीबी, अब
तोड़ दी कमर बढ़ी हुई मँहगाई ने ॥
अच्छी कविता.
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