''कोहरे की धुंध धीरे-धीरे इतनी बढ़ी कि,
रेल की भी चलने की चाहत नहीं हुई ।
कई रद्द रेलगाड़ियाँ हुईं ये सोचियेगा,
यात्रियों की ठण्ड में क्या आफ़त नहीं हुई ॥
चाहे नौकरी हो चाहे व्यवसाइयों की बात,
कभी इतनी बुरी तो हालत नहीं हुई ।
हड्डियाँ कंपाने वाली ठण्ड इतनी हुई कि,
घर से निकलने की हिम्मत नहीं हुई ॥ ''
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