"चाहते कि बनें ईश, सत्ता के ये मठाधीश,
इनके चरित्र पे जो दाग़ देखते नहीं ।
जिनके सुनाने से हो हाहाकार हर ओर,
स्वर साधना में ऐसे राग देखते नहीं ।।
अपने ही घर को जो खाक़ करने पे तुला,
घर का अगर वो चिराग़ देखते नहीं ।
हम भी तो मित्र फिर प्रेम के पुजारी होते,
आप किसी लेखनी में आग देखते नहीं ।।"
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